इस्लाम और मुसलमान

इस्लाम और मुसलमान :-   यदि मै आपसे कहु की आप कौन है ? यह बहुत ही सरल और अपने आप मे मुश्किल सवाल भी है, यू तो धर्म की किताबों से बहुत से मायने, मुसलमान शब्द के आप जानते होंगे , लेकिन सोचने का विषय तो ये भी है । Basically; मुसलमान शब्द अरबी के शब्द मुस्लिम से निकला है । हिन्दी ज़ुबान वाले अपने आप को मुस्लिम न कह मुसलमान कहते है ।

कुरान की ज़ुबान से देखा जाए तो इस्लाम धर्म का मानने वाला मुस्लिम कहलाता है । जैसा कि हम सभी जानते है कि मुस्लिम शब्द के असल मायने फर्माबरदारी या आज्ञाकारी के होते है । कुरान ने मुस्लिम को एक ऐसे शख्स के तौर पर परिभाषित किया जो एक खुदा का मानने वाला हो और जो खुदा की मर्ज़ी के ताबेय या अधीन  हो । जैसा कि कुरान मे खुदा ने हज़रत मुहम्मद को संबोधित करते हुए कहा :-

फ़रमा दीजिए : इस (क़ुरआन) को रूह़ुल कुद्स (जिब्रईल अलैहिस्‍सलाम ) ने आपके रब की तरफ़ से सच्चाई के साथ उतारा है ताकि ईमान वालों को साबित क़दम रखे और (यह) मुसलमानों के लिए हिदायत और बशारत है।16:102

ये दीन जो आदम से चला आ रहा था जो दुनिया के मुखतलिफ़ ज़बानों मे मुखतलिफ़ रसूलो और नबियों के जरिये से नौ इंसानियत के फलाह के लिए कायम किया गया । और फिर खुदा ने इब्राहिम नबी  को तमाम इन्सानो का पेशवा मुकर्रर किया और कहा :-

इब्राहिम तो वह शख्स है जिसको हमने दुनिया मे अपने काम के लिए चुन लिया था और आखिरत मे उसकी गिनती अच्छों मे होगी । उसका हाल यह  था की जब  उसके रब ने उससे कहा : “ मुस्लिम हो जा “ तो उसने तुरंत कहा : मै तमाम जहाँ के रब का मुस्लिम (फर्माबरदार ) हो गया । 2 : 130,131

“उसने तुम्हें चुन लिया है – और मजहब के मामले मे तुम पर कोई तंगी  और कठिनाई नहीं रखी । तुम्हारे बाप इब्राहिम के पंथ को तुम्हारे लिए पसंद किया ।उसने इससे पहले तुम्हारा नाम मुस्लिम रखा था और इस मकसद से की रसूल तुम पर गवाह हो और तुम लोगो पर गवाह हो । अतः नमाज़ का एहतमाम करो और ज़कात दो और अल्लाह को मजबूती से पकड़े रहो।“ 22:78

इब्राहीम न यहूदी था और न ईसाई  बल्कि वह तो एक ओर को होकर रहनेवाला मुस्लिम था । वह कभी मुशरीकों मे से न था । 3:67

इस्लाम सबके लिए :-  इस्लाम कि तालीमात ने अहले किताब यानि यहूदी और ईसाईयो के लिए भी एक ही Platform मे आने  कि पेशकश की क्योकि वो जिस खुदा को अलग नामो से पुकारते थे वो कोई और नहीं रब्बुल आलमीन (तमाम जहाँ का पालने वाला ) ही है उनकी तालीमात इस्लाम से जुदा न थी

इसलिए कुरान ने कहा :-

आप फ़रमा दें : ऐ अहले किताब! तुम इस बात की तरफ़ आ जाओ जो हमारे और तुम्हारे दरमियान यक्सां है, (वो यह) कि हम अल्लाह के सिवा किसी की इ़बादत नहीं करेंगे और हम उसके साथ किसीको शरीक नहीं ठहराएंगे और हममें से  कोई एक-दूसरे को अल्लाह के सिवा रब नहीं बनाएगा, फिर अगर वो रूगर्दानी करें तो कह दो कि गवाह हो जाओ कि हम तो अल्लाह के ताबेए़ फ़रमान (मुसलमान) हैं। 3:64

यदि हम मूसा और ईसा के वाकेयात पर गौर करे तो यकीनी तौर पर मालूम हो जाएगा तमाम नबियों का दीन इस्लाम ही था और उसके मानने वाले मुसलमान ही थे यदि ऐसा नहीं  होता तो ये आयते नहीं  उतरती जैसा की नीचे की आयतों से ज़ाहिर है :-

और मूसा अलैहिस्‍सलाम ने कहा : ऐ मेरी क़ौम! अगर तुम अल्लाह पर ईमान लाए हो तो उसी पर तवक्कल करो, अगर तुम (वाक़ई) मुसलमान हो।10:84

और जब मैंने ह़वारियों के दिलमें (यह) डाल दिया कि तुम मुझ पर और मेरे पैग़म्बर (ईसा अलैहिस्‍सलाम ) पर ईमान लाओ, (तो) उन्होंने कहा : हम ईमान ले आए और तू गवाह हो जा कि हम यक़ीनन मुसलमान हैं।5:111

ये बात आपको  ताज्जुब पैदा करेगी कि इस्लाम के मानने वाले सिर्फ वो ही नही  है  जिनहोने हज़रत मुहम्मद को अपना रसूल माना बल्कि वो सभी इंसान है जो एक खुदा के मानने वाले हो और आखिरत पर यकीन करने वाले हो और नेक अमल पैरा हो जैसा कि नीचे कि आयत से ज़ाहिर है :-

बेशक जो लोग ईमान लाए और जो यहूदी हुए और (जो) नसारा और साबी (थे उनमें से) जो (भी) अल्लाह पर और आखि़रत के दिन पर ईमान लाया और उसने अच्छे अ़मल किए, तो उनके लिए उनके रब के हां उनका अज्र है, उन पर न कोई ख़ौफ़ होगा और न वो रंजीदा होंगे। 2:62

कुरान  ने मुसलमान  होने का कम अज़ कम दायरा मुकर्रर कर दिया लेकिन मुस्लिम मुल्लाओ के दिमागो पर काफ़िर लफ़्ज़ का सहर ऐसा छाया था कि मज़हब के दरवाज़े पर नफरत का एक बड़ा सा ताला लटका दिया । इंसानी नफ़्सियात के ये पैमाने इंसानी क़द्र को छोटा करते नज़र आए ।

जिस दायरे (यानि इस्लाम) मे इंसानियत को समाना था वो खुद लक़ीरे खींचते नज़र आ रहा था , यह एक अपवाद है और हो भी क्यो न ? जब, जब ईसा अलै॰ जैसे वक़्त के नबी ने एक खुदा की तालीमात को हैकल ए सुलेमानी मे बुलंद किया और मज़हब की बुरी रस्मों रिवाज को तोड़ा तो उन्हे सूली मे चढाने की तरगीब करने वास्ते यहूदी रब्बीयों (धर्म पेशवा) ने कोई कसर नहीं रखी ।

मुसलमान होना उस एक वाहिद रब की गवाही देना है और उसके तमाम रसूलो पर ईमान लाना और  आखिरत के तसव्वुर पर यक़ीन करते हुआ उस रब की तालीमात पर पूरे दिल ओ जान से अमल पैरा होने का नाम है ।

“इनसानी तजुर्बे सिलसिलेवार अपनी निशानिया छोड़े जा रहे थे , हाशिये पर अब भी नादां मुसलमा था ।

  मेरे रहबर ही मेरी पस्ती के सामा थे , मुझे अब भी किसी की रहमतों की तलाश है ।।

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