जैसा की हम सभी जानते है नमाज़ का इस्लाम मे कितना अहम role है ये वो इबादत है जो खुदा के यहा मक़बूल है। वैसे तो हर कोई जानता है नमाज़ क्यो पड़ना चाहिए ? लेकिन हर कोई ये नहीं जानता कि नमाज़ क्या है ? ये किस तरह मक़बूल होती है ? ये किस तरह इंसानी रूह की ज़रूरत है
नमाज़ क्या है?
नमाज़ एक फारसी लफ़्ज़ है जो गैर अरबियो मे काफी मशहूर है लेकिन अरबी मे इसका अस्ल लफ़्ज़ सलात है जिसके मायने दुआ, बरकत और तारीफ़ के है । चुकी सलात फर्ज़ है और इसका मक़सद खुदा से खुद को जोड़ने के है इसलिए इसे Obligatory Prayer या Contact Prayer भी कहा जाता है । यह इस्लामी faith के पाँच सुतून मे से एक है जो कि दिन मे पाँच बार अदा किया जाता है । यह एक जिस्मानी, ज़ेहनी और रूहानी इबादत है । नमाज़ एक रूहानी ताल्लुक है जिसे समझने के लिए हमे नफ़्सियात के बारे मे थोड़ा कुछ जानने कि ज़रूरत है ।
नमाज़ का मक़सद क्या है ?
जैसा कि हम जानते है कि नमाज़ का मक़सद बेहयाई और बुरे काम से रोकना है ।
और नमाज़ क़ाइम कीजिए, बेशक नमाज़ बेह़याई और बुराई से रोकती है, और वाक़ई़ अल्लाह का ज़िक्र सब से बड़ा है, और अल्लाह उन(कामों) को जानता है जो तुम करते हो । 29:45
बेशक नमाज़ बेहयाई और बुरे काम से रोकती है , क्या ये समझने की ज़रूरत नहीं है कि यह कैसे होता है । कुरान ने बताया कि पिछले नबी और रसूल जो गुज़र चुके थे उन्हे भी नमाज़ पड़ने का हुक्म दिया गया था हालाकि इस बात से बहुत से मुसलमान ताज्जुब करेंगे लेकिन ये सच है कि इब्राहिम , मूसा , दाऊद, ईसा ये सारे वक़्त के नबियों को नमाज़ अदा करने का हुक्म दिया गया था । अल्लाह ने इब्राहिम को उम्मते मुस्लिमा का पेशवा बनाया और उन्हे इबादत के तरीके सिखाये। इन तरीको को तमाम नबियों के लिए फर्ज़ करार दिया ।
और हमने उनको ( इब्राहिम) पेशवा बनाया वो (लोगों को) हमारे हु़क्म से हिदायत करते थे और हमने उनकी तरफ़ आमाले खै़र और नमाज़ क़ाइम करने और ज़कात अदा करने (के अह़काम) की वह़ी भेजी और वो सब हमारे इ़बादत गुज़ार थे।21 :73
और हमने मूसा अलैहिस्सलाम और उनके भाई की तरफ़ वह़ी भेजी कि तुम दोनों मिस्र (के शहर) में अपनी क़ौम के लिए चंद मकानात तैयार करो और अपने (उन) घरों को (नमाज़ की अदाएगी के लिए) क़िब्ला रुख़ बनाओ और (फिर) नमाज़ क़ाइम करो, और ईमानवालों को ख़ुश ख़बरी सुना दो। 10: 87
ये बात तो तय है कि नमाज़ एक अहम इबादत है जिससे उम्मते मुस्लिमा की अहम तरबियत होनी थी । ये एक सोचने की बात थी कि इस्लाम ने हमे नमाज़ को पाँच अलग अलग वक्तों मे इसे अदा करने का क्यों हुक्म दिया ?
मै ये समझता हु कि जिस तरह हम दिन के तीन वक्तों मे अपनी जिस्म कि भूख मिटाने के लिए खाना खाते है ताकि हमारा जिस्म मजबूत हो उसे ताक़त मिले बिलकुल उसी तरह अपनी रूह की गिज़ा वास्ते खुदा तआला ने पाँच वक़्त की नमाज़ों का एहतमाम करवाया । अगर हम नमाज़ों को दुआ समझे तो ये पाँच वक्तों मे करे तो यकीनन इससे हमारे ख़्यालो के करेक्टर मे बड़ा बदलाव आ जाएगा और हमारी ज़िंदगी बदल जाएगी।
और आप दिन के दोनों किनारों में और रातके कुछ हि़स्सों में नमाज़ क़ाइम कीजिए। बेशक नेकियां बुराइयों को मिटा देती हैं। यह नसीह़त क़ुबूल करनेवालों के लिए नसीह़त है। 11:114
और तुम नमाज को काइम रख़ो और ज़कात की अदाएगी करते रहो और रसूल की इताअ़त बजा लाओ ताकि तुम पर रहम फ़रमाया जाए । 24 :56
बेशक जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक आमाल किए और नमाज़ काइम रखी और ज़कात देते रहे उनके लिए उनके रब के पास उनका अज्र है, और उन पर (आखि़रत में) न कोई ख़ौफ़ होगा और न वो रंजीदा होंगे। 2 :277
(यह) वो लोग हैं जो नमाज़ क़ाइम रखते हैं और जो कुछ हमने उन्हें अ़ता किया है उसमें से ख़र्च करते रहते हैं। (ह़क़ीक़त में) यही लोग सच्चे मोमिन हैं , उनके लिए उनके रब की बारगाह में (बड़े) दरजात हैं और मगि़्फ़रत और बुलंद दरजा रिज़्क़ है। 8:3-4
कुरान ने जिस तरह नमाज़ और ज़कात का ज़िक्र कसरत से किया ये सोचने को मजबूर करती है कि इसे हर दौर मे हर नबी हर उम्मत पर फर्ज़ किया। यानि ये कोई ख़ास इबादत है जो खुदा से हमे जोड़ने का खुसूसी ज़रिया ए ताल्लुक है।
नमाज़ क्यो कायम करना चाहिए ?
बेशक मैं ही अल्लाह हूं मेरे सिवा कोई माबूद नहीं सो तुम मेरी इ़बादत किया करो और मेरी याद की ख़ातिर नमाज़ क़ाइम किया करो।20:14
इस आयत की रोशनी से यह समझ आता है कि नमाज़ का सब से अहम फ़लसफ़ा ख़ुदा की याद है और ख़ुदा की याद ही है जो हर हाल में इंसान के दिल को आराम और इतमीनान अता करती है।
जो लोग ईमान लाए और उनके दिल अल्लाह के ज़िक्रसे मुत्मइन होते हैं, जान लो कि अल्लाह ही के ज़िक्रसे दिलों को इत्मीनान नसीब होता है।13:28
हर मुश्किल और परेशानी मे नमाज़ और सब्र के ज़रिये से खुदा तआला से मदद हासिल करने को कहा ।
ऐ ईमानवालो! सब्र और नमाज़ के ज़रीए़ (मुझ से) मदद चाहा करो, यक़ीनन अल्लाह सब्र करने वालों के साथ (होता) है।2:153
खुदा जानता है कि वो क्या चीज़ है जो हमारे मरने के बाद खुदा के हुज़ूर मे लौटाई जानी है ये वो ही है जिसे हम नफ़्स या आत्मा कहते है जो अपने करमा के जरिये अपने निजात को हासिल करेगी । जैसा कि मैंने ऊपर के वाकियों मे नफ़्स का ज़िक्र किया है
इंसानी नफ़्स (मन) के तीन stages है :-
- नफ़्स ए अम्मारह 2.नफ़्स ए लव्वामह 3. नफ़्स ए मूतमइननाह
नफ़्स ए अम्मारह :- यह वो हालत है जिसमे हमारे अंदर बुरे खयालात के लिए उकसाहट पैदा होती है जो बुराई कि तरफ हौसला अफजाई करती है । जिसे हम सबसे कमतर दर्जा कह सकते है यानि इंसान वह सब कुछ करता है जो उसके जी मे आता है ।
और मैं अपने नफ़्स को बरी नहीं करता, बेशक नफ़्स तो बुराई का बहुत ही हु़क्म देनेवाला है सिवाए उसके जिस पर मेरा रब रह़म फ़रमा दे। बेशक मेरा रब बड़ा बख़्शनेवाला निहायत मेहरबान है।12:53
नफ़्स ए लव्वामह :- यह वो हालत होती है जहा इंसान को बुरे काम करने के बाद अफसोस , पश्चाताप या मलामत होती है।
और मैं कसम खाता हूं (बुराइयों पर) मलामत करने वाले नफ़्स की। 75:2
नफ़्स ए मूतमइननाह :- यह वो हालत होती है जहा इंसान एक यक़ीन पर मजबूत हो जाता है अपनी बुराइयों को पीछे छोड़ अपनी रूह के सुकून की ओर बड़ जाता है । जिसे Peace कहते है। वो हर हाल मे खुदा की शुक्र गुज़ार होती है ।
ऐ इत्मीनान पा जानेवाले नफ़्स! तू अपने रब की तरफ़ इस ह़ाल में लौट आ कि तू उसकी रज़ा का तालिब भी हो और उसकी रज़ा का मतलूब भी। 89:27-28
हमारी नमाज़ हमारी नफ़्स या आत्मा के अंदर वो खुसुसियत पैदा करती है जिससे वो नफ़्स ए मुतमइननाह की कैफियत को पहुच पाती है ।ये ही वो नफ़्स है जो जन्नत कि हक़दार बनेगी ।
नमाज़ से किस तरह ताल्लुक बिल्लाह कायम होता है ?
A) ऐ ईमानवालो! जब (तुम्हारा) नमाज़ के लिए खड़े (होने का इरादा) हो तो (वुज़ू के लिए) अपने चेहरों को और अपने हाथों को कोहनियों समेत धो लो और अपने सरों का मसह करो और अपने पॉंव (भी) टख़्नों समेत (धो लो) 5 :6
वुज़ू ये कोई हाथ मुंह धोने को नहीं बताता बल्कि खुसूसी तौर पर इंसानी रूह व जिस्म की तस्कीन की कोई तरगिब की वजाहत करता है लेकिन हमने इसे नजाबत दूर करने का तरीका समझ बैठे ।
B) बेशक ईमानवाले मुराद पा गए। लोग अपनी नमाज़ में इ़ज्ज़ो नियाज़ करते हैं। 23:1-2
नमाज़ को शाइस्तगी के साथ अदा करना चाहिए ताकि बंदगी के एहसास को कायम रखा जा सके
C) फ़रमा दीजिए कि अल्लाह को पुकारो या रहमान को पुकारो, जिस नाम से भी पुकारते हो (सब) अच्छे नाम उसी के हैं, और न अपनी नमाज़ (में क़िराअत) बुलंद आवाज़ से करें और न बिल्कुल आहिस्ता पढे़ं और दोनों के दरमियान रास्ता इख़्तियार फ़रमाएं। 17 :110
मुसलमानो ने नमाज़ के इस तरीके को सिर्री और जेहरी नमाज़ों के फित्नो मे पड़कर खो दिया । हम उन सनदों पर किस तरह यकीन करे जो खुदा के हुक्म के बरक्स (विपरीत) हो ,ये ही वो अहम तरीन तरीका है जो इस बात का एहसास कराता है कि आप जो कह रहे है उसे शऊर के साथ कह रहे है और खुद भी सुन रहे है जैसा कि कुरान मे आता है
D) ऐ ईमानवालो! तुम नशे की ह़ालत में नमाज़ के क़रीब मत जाओ यहां तक कि तुम वो बात समझने लगो जो कहते हो । 4:43
“ तुम वो बात समझने लगो जो कहते हो “ ये अहम बात है नमाज़ एक बाशऊरी इबादत है जो कह रहे हो उसे बाशऊर होकर कहो ताकि उसका जवाब मिल सके उसके असरात कायम हो सके । जैसा कि कुरान कहता है
(और ऐ ह़बीब!) जब मेरे बन्दे आप से मेरी निस्बत सवाल करें तो (बता दिया करें कि) मैं नज़दीक हूं, मैं पुकारनेवाले की पुकार का जवाब देता हूं, जब भी वो मुझे पुकारता है,पस उन्हें चाहिए कि मेरी फ़रमांबरदारी इख़्तियार करें और मुझ पर पुख़्ता यक़ीन रखें ताकि वो राहे (मुराद) पा जाएं। 2:186
यकीनन जब हम नमाज़ मे सूरह फातिहा पड़ते है जिसमे हम रबबूल इज्ज़त से दुआ मांगते है और हर लफ़्ज़ का खुदा तआला जवाब देता है
(ऐ अल्लाह!) हम तेरी ही इ़बादत करते हैं और तुझ ही से मदद चाहते हैं। हमें सीधा रास्ता दिखा। उन लोगों का रास्ता जिन पर तूने इनआ़म फ़रमाया। उन लोगों का नहीं जिन पर ग़ज़ब किया गया है और न (ही) गुमराहों का। 1:6-8
किस तरह इंसान पांचों वक्तों मे उसे याद करता है , अपनी मसरूफ़ियात के बावजूद उसकी याद के लिए नमाज़ का एहतमाम करता है यकीनन आप जिस चीज़ को या जिस शख्स को ज़्यादा याद करते है वह आपकी ज़िंदगी आपकी सोच का अहम हिस्सा बन जाती है और नमाज़े हमे सिखाती है कि रब तआला हमारी ज़िंदगी हमारी ज़रूरत हमारे एहसासात के एक बड़े हिस्से मे मौजूद है
E) फिर उनके बाद वो ना ख़ल्फ़ जा नशीन हुए जिन्होंने नमाजें ज़ाया कर दीं और ख़्वाहिशाते (नफ़्सानी) के पैरव हो गए तो अ़नक़रीब वो आखि़रत के अ़ज़ाब से दो चार होंगे। 19:59
नमाज़ को छोड़ने वालों को सज़ा दी जाएगी यकीनन खुदा नहीं चाहता कि इंसान अपनी नफ़्स का गुलाम बन जाए और बुराइयों मे पड़ जाए शायद इसीलिए उसने सज़ा का हुक्म दिया अक्सर लोग ये न समझ पाये ये सज़ा का हुक्म भी उसकी रहमत है ।
F) फिर (ऐ मुसलमानो!) जब तुम नमाज़ अदा कर चुको तो अल्लाह को खड़े और बैठे और अपने पहलुओं पर (लेटे हर ह़ाल में) याद करते रहो, फिर जब तुम (ह़ालते ख़ौफ़से निकल कर) इत्मीनान पा लो तो नमाज़ को (ह़स्बे दस्तूर) क़ाइम करो। बेशक नमाज़ मोमिनों पर मुक़र्ररह वक़्त के हि़साबसे फ़र्ज़ है।4:103
नमाज़ के अलावा भी उसे बहुत याद करने को खुदा कहता है जैसे हम किसी भीं काम के शुरू मे बिस्मिल्लाह कहे , कोई काम जो हम करने का इरादा करे उसके पहले इनशाल्लाह कहे , कोई खूबसूरत चीज़ देखे तो माशाल्लाह कहे जब किसी सवारी मे सवार हो तो दुआ पड़े इस तरह हम अपनी आम ज़िंदगी के हर शोबे मे उसके ज़िक्र को कायम कर सकते है यानि बंदगी ये नहीं कि हुक्म बजा लाये बल्कि हर लम्हे मे उसकी याद कायम रहे ।
जब हम उसकी याद मे होते है तो अच्छाइया,नेकीया दिलो मे अपनी तासीर पैदा करती है । बुराइयाँ ज़मीदोज़ होने लगती है और ये सारे असरात कही ओर नहीं बल्कि हमारे दिल पे असर करता है और ये जो हमारा दिल है इसमे बड़े राज़ छिपे है जब ये बहुत खुश होता है या उसे तकलीफ होती है तो आंखो से मोती की मानिंद आँसू बाहर आते है ये मोती दिलो का हाल बयान करते है । जिस दिल मे खुदा की याद बसे तो बुराई को जगह कैसे मिले ।
मै तेरे रंग मे रंग जाऊ , मेरे हर रंग मे बस तू ही तू ऐ अल्लाह
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