मै अक्सर सोचा करता था जब हम बकरईद का त्यौहार मना रहे होते है तो जो लोग हज करने गए है वो क्या कर रहे होते है ? जब इस सवाल का जवाब मिला तो मालूम चला कि इस सवाल को उल्टा करके पूछा जाये तो जवाब खुद आ जाता है यानि हज अदा किया जाता है इसी लिए बकरईद मनाई जाती है । वैसे इस मज़हबी सवाल में मज़हब के नुमाइन्दो ने बहुत सारी पेचीदगिया पैदा की हुई है । इन बातो को समझने के लिए क़ुरान और इस्लामी इतिहास पर रौशनी डालने पर सच्चाई कुछ और ही नज़र आती है ।
चलिए इन बातो को समझने की कोशिश करते है । इस्लाम में त्योहारों का कोई सीजन नहीं आता जैसा की हमारे हिंदुस्तान में होता है । लेकिन सऊदी अरब में हज एक सीजन होता है जिसमें पुरे अरब से लोग आकर हज के अरकान अदा करते है और खुदा की खुशनूदी हासिल करते है । हज के दरमियाँ मीना , मुज्दल्फा और अराफात में मुकाम करना, खुदा को खूब याद करना और फिर सफा और मरवा के दरमियाँ सईं करना , सर मुंडाना , कुर्बानी देना और क़ाबा का तवाफ़ करना । ये वो अरकान है जो हज के दौरान हाजी किया करते है और इस दरमियाँ खुदा के बताये कुछ सख्त कानूनों को यानि इस दरमियाँ अपनी बीवी से सोहबत नहीं करना , किसी को तकलीफ नहीं पहुचाना, लड़ाई झगडा नहीं करना आदि कुछ नियमो का पालन करना होता है ।
जैसा की इतिहास में दर्ज है हज़रत मुहम्मद ने भी अपनी पूरी ज़िन्दगी में एक ही हज अदा किया । उनकी ज़िन्दगी में बकरईद करके कोई त्यौहार को मनाया गया इसकी कोई सनद नहीं मिलती और आपको यकीन न आये तो आप इतिहासकारों या उन मुल्लाओ से भी पुछ सकते है जिन्होंने किसी मदरसे में नहीं बल्कि यूनिवर्सिटी से तालीम याफ्ता हो ।
मै यहाँ दो मखसूस बातो की वजाहत पेश करने की कोशिश करूँगा , अल्लाह ने चाहा तो ये इल्म आपको हक़ से रूबरू होने का मौका देगा ।
जो पहली बात मै बताना चाहता हु वो ये की खुदा ने हज़रत इब्राहीम को कभी नहीं कहा की अपनी औलाद को कुर्बान करो । ये एक गलत मिसाल पेश की गई क्योकि खुदा अपने कानून के खिलाफ बात नहीं करता । क़ुरान में आता है :-
और जब वो कोई गुनाह का काम करते हैं (तो) कहते हैं, हमने अपने बापदादा को इसी (तरीके़) पर पाया और अल्लाह ने हमें इसी का ह़ुक्म दिया है। फ़रमा दीजिए कि अल्लाह गुनाह के कामों का हुक्म नहीं देता। क्या तुम अल्लाह (की ज़ात) पर ऐसी बातें करते हो जो तुम खु़द (भी) नहीं जानते। (7 : 28)
क्या कोई शख्स इस बात पर यकीन कर सकता है कि परम दयालु रब हज़रत इब्राहीम को अपने बेटे को क़त्ल करने का हुक्म देगा ? खुदा के बारे में इस तरह का ख्याल बेहद ही बुरा है । क़ुरान में हमें कही नहीं मिलता की खुदा ने हज़रत इब्राहीम को कहा हो की तुम अपने बेटे हज़रत इस्माइल को क़त्ल करो बल्कि खुदा ने इन्हें शैतान की साजिश से बचाने के लिए कुर्बानी को भेजा :-
अस-साफ्फात (As-Saffat):107 – और हमने उसे (बेटे को) एक बड़ी क़ुरबानी के बदले में छुड़ा लिया ।
खुदा ने हज़रत इब्राहीम को कहा “तूने ख्वाब को सच कर दिखाया। “ (37:105) बेशक ये शैतान की तरफ से इल्हाम वाला ख़्वाब था । खुदा का कानून बदला नहीं करता : “खुदा कभी गुनाह की हिमायत नहीं करता” । (7:28)
ये वो सच्ची हकीक़त है जो यहूदियों और ईसाईयो की मनगढ़ंत तफ्सिरो में गुम हो गई । क़ुरान और खालिस क़ुरान की रौशनी से जब मुसलमान ने देखना और सोचना छोड़ दिया तो उसके नतीजे में उस सोच ने कब्ज़ा करना शुरू किया जो खालिस शैतानियत के अलावा कुछ नहीं थी ।
पूरे कुरान ( 2:130 , 135; 3:95 ; 4:125 ; 6:161 ; 12:37 -38; 16:123 ; 21:73 ; 22:78 ) में इस्लाम को मिल्लते इब्राहीम( इब्राहीम का दीन) कहा । इसके अलावा क़ुरान हमें बताता है की हजरत मुहम्मद इब्राहीम के पैरोकार थे ।
इस तरह, आज का इस्लाम अपनी मुकम्मल शक्ल में , जैसे की अमल किया जाता है , वो इन दो चीजों में बसा हुआ है
- क़ुरान : हज़रत मुहम्मद के के ज़रिये दिया गया और
- मज़हबी तरीके : हज़रत इब्राहीम के ज़रिये
अब दूसरी बात जो हज के दिनों के ताल्लुक से है यानि हज के दिनों को जिस तरह से सऊदी शासको ने महीनो से निकालकर चंद दिनों में ला दिया अपनी सहुलत के हिसाब से ये एक बहुत अजूबे की बात है और इससे भी बड़ी बात ये है की दुनिया में किसी ने उनके इस तरीके का विरोध भी नहीं किया । और हुरमत के महीनो का ज़िक्र भी आलिमो तक महदूद रह गया । अब आप मुझसे पूछेंगे ये क्या बकवास हो रही है । चलिए क़ुरान से पता करते है । क़ुरान ने हुरमत के महीनों का ज़िक्र किया । ये हुरमत के महीने क्या होते है ।
अल-बक़रा (Al-Baqarah):189 – वे तुमसे (हुरमत) वाले महीनों के बारे में पूछते है। कहो, “वे तो लोगों के लिए और हज के लिए नियत है। और यह कोई ख़ूबी और नेकी नहीं हैं कि तुम घरों में उनके पीछे से आओ, बल्कि नेकी तो उसकी है जो (अल्लाह का) डर रखे। तुम घरों में उनके दरवाड़ों से आओ और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो
ये हुरमत के महीने कितने होते है और उसमे क्या नहीं करना है :-
अत-तौबा (At-Tawbah):36 – निस्संदेह महीनों की संख्या – अल्लाह के अध्यादेश में उस दिन से जब उसने आसमानो और ज़मीन को पैदा किया – अल्लाह की नज़र में बारह महीने है। उनमें चार हुरमत के है, यही सीधा दीन (धर्म) है।अतः तुम उन (महीनों) में अपने ऊपर अत्याचार न करो। और मुशरिकों से तुम सबके सब लड़ो, जिस प्रकार वे सब मिलकर तुमसे लड़ते है। और जान लो कि अल्लाह डर रखनेवालों के साथ है
अल-बक़रा (Al-Baqarah):197 – हज के महीने जाने-पहचाने और निश्चित हैं, तो जो इनमें हज करने का इरादा करे, को हज में न तो गन्दी बातें हो सकती है और न गुनाह और न लड़ाई-झगड़े की कोई बात। और जो भलाई के काम भी तुम करोंगे अल्लाह उसे जानता होगा। और (ईश-भय) पाथेय ले लो, क्योंकि सबसे उत्तम पाथेय ईश-भय है। और ऐ बुद्धि और समझवालो! मेरा डर रखो
अल-बक़रा (Al-Baqarah):217 – वे तुमसे हुरमत वाले महीने के बारे में पूछते है कि उसमे लड़ना कैसा है ? कहो, “उसमें लड़ना बड़ी गम्भीर बात है, परन्तु अल्लाह की राह से रोकना, उसके साथ अविश्वास करना, मस्जिदे हराम (काबा) से रोकना और उसके लोगों को उससे निकालना, अल्लाह की स्पष्ट में इससे भी अधिक गम्भीर है और फ़ितना (उत्पीड़न), रक्तपात से भी बुरा है।”
इन आयातों में अरब के इतिहास की झलक मिलती है , जिसमे अरब छोटी छोटी बातो पर लड़ जाया करते थे और वो लड़ाईया बरसो चला करती थी । खुदा ने हुरमत के महीने तय किये ताकि हज और उमरह करने वालो को सहुलत हासिल हो सके ।
पहले के दौर में, आज के हज के तरीके की कल्पना करे तो ये मुम्किन ही ना था की कोई उन चंद ज़ुल्हिज्जा के 5 दिनों में पहुच जाये और उन दिनों को हासिल कर अपने हज पुरे करे क्योकि सफ़र पहले आसान नहीं था और अल्लाह को खूब पता था लेकिन इंसानों ने अपनी सहुलत के मद्दे नज़र इस तरह की बिद्द्तो को सरंजाम दिया जिसके नतीजो में हम देखते है की कितने ही हाजी भीड़ में कुचले और रौंदे जाते है और जिसका गुनाह उस मुल्क के बादशाह और आलिमो पर जाता है ।
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