मुझे याद है मेरे cousin हर साल की तरह इस साल भी मेरे वालिद साहब को call कर पुछ रहे थे चाचा ये ज़कात की रकम कितनी अदा करनी है ,कैसे calculation करना है ,किन्हे देना चाहिए वगैरह वगैरह।
मै सोच रहा था मेरे बड़े भाई जो खुद आज बालो की सफेदी की उम्र को पहुच चुके है वो क्यो हमेशा भूल जाते है, बहुत सोचने के बाद एहसास हुआ मज़हब की priority हर किसी की ज़िंदगी मे नहीं होती है । फिर वही से ख्याल आया कि इस topic को आसानी से हर मुसलमान को मालूम होना चाहिए ।
मैंने पाया कि इस्लाम कि बुनियादी बातों को इस्लामी मुल्लाओ ने मुश्किल बना दिया है चुकि हर मुसलमान इस्लामी knowledge नहीं रखता और ये ही कमी एक विशेष तबके को अपनी रोज़ी कमाने का ज़रिया दिखाई देने लगा , वैसे ये सिलसिला आज से नहीं सदियो से चला आ रहा है । चलिये हम main मुद्दे पर आते है । कुरान ज़कात के बारे मे क्या कहता है :
“बेशक जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक आ’माल किए और नमाज़ काइम रखी और ज़कात देते रहे उनके लिए उनके रब के पास उनका अज्र है, और उन पर (आखि़रत में) न कोई ख़ौफ़ होगा और न वो रंजीदा होंगे। “2: 277
हम यहा जानने की कोशिश करेंगे कि ज़कात क्या है ? मुस्लिम ज़कात क्यो देते है ? यह कैसे दिया जाना चाहिए ? किसे दिया जाना चाहिए ? यह article इन बातों को विस्तार से समझने मे आपकी मदद करेगा इंशाल्लाह।
ज़कात क्या है ?
यह सद्का ए फर्ज़ या obligatory charity कहलाता है । जो हमे हर उस income पर देनी होती है जों हम हासिल करते है । ज़कात लफ़्ज़ अरबी के zakah से निकला जिसके मायने
“ वह जों पाक करे “ यानि आपके माल को पाक करने वाला जिसे zakat al mal भी कहा जाता है । कुरान ने सद्कात और ज़कात को शिद्दत से बयान किया लेकिन ज़कात को सदक़ा ए फर्ज़ करार दिया जिसकी अहमियत कुरान मे बड़ी शिद्दत से की गई :-
“और नमाज़ क़ाइम (किया) करो और ज़कात देते रहा करो, और तुम अपने लिए जो नेकी भी आगे भेजोगे उसे अल्लाह के हुजू़र पा लोगे, जो कुछ तुम कर रहे हो यक़ीनन अल्लाह उसे देख रहा है। ” 2:110
मुस्लिम ज़कात क्यो देते है ?
ज़कात हमारे ख़ालिक़ और मालिक खुदा की इबादत के एहक़ाम का अहम अमल है । यह इस्लाम के पाँच सुतुन मे से एक है इसका ज़िक्र कुरान मे कई जगहो मे नमाज़ के तुरंत बाद आता है ।
“ ह़ालांकि उन्हें फ़क़त यही हु़क्म दिया गया था कि सिर्फ़ उसी के लिए अपने दीन को ख़ालिस
करते हुए अल्लाह की इ़बादत करें, (हर बातिल से जुदा हो कर) ह़क़ की तरफ़ यकसूई पैदा
करें और नमाज़ क़ाइम करें और ज़कात दिया करें और यही सीधा और मज़बूत दीन है।“ 98:5
ज़कात नेक होने के मयार का एक हिस्सा है जैसा की 2: 177 और 31:2-4 मे है
“ नेकी सिर्फ़ यही नहीं कि तुम अपने मुंह मशरिक़ और मग़रिब की तरफ़ फेर लो बल्कि अस्ल नेकी तो यह है कि कोई शख़्स अल्लाह पर और क़यामत के दिन पर और फ़रिश्तों पर और(अल्लाह की) किताब पर और पैगंबरों पर ईमान लाए, और अल्लाह की मुह़ब्बत में (अपना) माल क़राबतदारों पर और यतीमों पर और मोह़ताजों पर और मुसाफ़िरों पर और मांगनेवालों पर और (ग़ुलामों की) गरदनों (को आज़ाद कराने) में ख़र्च करे, और नमाज़ क़ाइम करे और ज़कात दे और जब कोई वादा करें तो अपना वादा पूरा करने वाले हों, और सख़्ती (तंगदस्ती) में और मुसीबत (बीमारी) में और जंग की शिद्दत (जिहाद) के वक़्त सब्र करनेवाले हों, यही लोग सच्चे हैं और यही परहेज़गार हैं। “ 2:177
“यह हि़क्मतवाली किताब की आयतें हैं। जो नेकूकारों के लिए हिदायत और रह़मत है।जो लोग नमाज़ क़ाइम करते हैं और ज़कात देते हैं और वो लोग जो आखि़रत पर यक़ीन रखते हैं।“ 31:2-4
कुरान ने सद्कात को इंसानी रूहों की पाकीज़गी का ज़रिया बताया
“आप उनके अम्वाल में से सदक़ा (ज़कात) वसूल कीजिए कि आप इस (सदके़) के बाइ़स उन्हें (गुनाहों से) पाक फ़रमा दें और उन्हें (ईमानो माल की पाकीज़गी से) बरकत बख़्श दें और उनके ह़क़ में दुआ़ फ़रमाएं, बेशक आपकी दुआ़ उनके लिए (बाइ़से) तस्कीन है,और अल्लाह खू़ब सुननेवाला खू़ब जाननेवाला है।क्या वो नहीं जानते कि बेशक अल्लाह ही तोअपने बंदों से (उनकी)
तौबा क़बूल फ़रमाता है और सदक़ात (या’नी ज़कातो ख़ैरात अपने दस्ते क़ुदरत से) वुसूल फ़रमाता है और यह कि अल्लाह ही बड़ा तौबा क़ुबूल फ़रमानेवाला निहायत मेहरबान है।“ 9:103-104
ऊपर की आयतों मे इंसानी रिहाई , तौबा की कुबूलियत को सद्कात से जोड़ कर बताया जा रहा है । सद्कात हमारे गुनाहो को दूर करने मे मदद मिलती है और हमारी रिहाई का ज़रिया बताया ।
जैसा की Wikipedia के अनुसार इस्लाम मे ज़कात का शाब्दिक अर्थ है “ वह जों पाक करता है “
कुरान मे ऐसे कई मुकाम मे ज़कात के मायने पाकीज़गी से लिए गए है
“इसी तरह़ हमने तुम्हारे अन्दर, तुम्हीं में से (अपना) रसूल भेजा, जो तुम पर हमारी आयतें तिलावत फ़रमाता है और तुम्हें (नफ़्सन-व-क़ल्बन) पाक साफ करता है और तुम्हें किताब की ता’लीम देता है और हि़क्मतो दानाई सिखाता है और तुम्हें वो (असरारे मा’रेफ़तो क़ीक़त)सिखाता है जो तुम नहीं जानते थे।“ 2:151
“ऐ हमारे रब! उनमें उन्ही में से (वो आखि़री और बरगुज़ीदह) रसूल मब्ऊ़स फ़रमा, जो उन पर तेरी आयतें तिलावत फ़रमाए और उन्हें किताब और हि़क्मत की ता’लीम दे (कर दानाए राज़ बना दे) और उन (के नुफ़ूसो क़ुलूब) को खूब पाक साफ़ कर दे,
बेशक तू ही ग़ालिब हि़क्मतवाला है।“ 2:129
ऊपर को आयतों मे जहा भी पाकीज़गी की बात आई वह अरबी लफ़्ज़ ज़का इस्तेमाल किया गया ।
ज़कात न सिर्फ हमारे माल को बल्कि हमारी रूहों को भी पाकीज़गी अता करता है । कुरान ने ज़कात को अल्लाह की रहमत का ज़रिया भी बताया :-
“और तू हमारे लिए इस दुनिया (की ज़िन्दगी) में (भी) भलाई लिख दे और आखि़रत में (भी)
बेशक हम तेरी तरफ़ ताइबो राग़िब हो चुके, इर्शाद हुआ: मैं अपना अ़ज़ाब जिसे चाहता हूं उसे पहुंचाता हूं और मेरी रह़मत हर चीज़ पर वुस्अ़त रखती है, सो मैं अ़नक़रीब उस (रह़मत) को उन लोगों के लिए लिख दूंगा जो परहेज़गारी इख़्तियार करते हैं और ज़कात देते रहते हैं और वोही लोग ही हमारी आयतों पर ईमान रखते हैं।“ 7:156
“और तुम नमाज (के निज़ाम) को काइम रख़ो और ज़कात की अदाएगी (का इन्तिजाम) करते रहो और रसूल की (मुकम्मल) इताअ़त बजा लाओ ताकि तुम पर रहम फ़रमाया जाए (या’नी ग़ल्बाओ इकि़्तदार, इस्तेह़काम और अम्नो हि़फ़ाज़त की ने’मतों को बरक़रार रखा जाए)।” 24:56
मुसलमान ज़कात कैसे अदा करे ?
ज़कात हमारे माल का 2.5% अदा किया जाना चाहिए ।
“जों अपनी नमाज की हमेशा पाबंदी करते है । जिनके मालो मे मांगने वालों और पाने से रह जानेवालो (महरूम) का एक निश्चित हक़ है ।“ 70 :24-25
हर मुसलमान को अपनी रोज़ी से ये हिस्सा निकालना फर्ज़ है चाहे वो कितना कम या कितना ज़ायद क्यों न कमाता हो और जब भी वो रोज़ी हासिल करे ।
आम रिवायत चली आ रही है कि जों माल इन्सानो के पास एक साल तक रह गया हो उस माल पर ज़कात अदा किया जाना चाहिए या जिनके पास सोने या चाँदी की एक मुकर्रर मिक़दार हो वो उस पर ज़कात अदा करे यह यक़ीनी तौर पर इंसानी हुकुक के साथ ज़ुल्म है । आप कहेंगे कैसे ?
मेरे एक भाई जिन्हे अपनी शादी मे अपनी बीवी के जरिये से सोने के बहुत से ज़ेवरात मिले जों की मुकर्रर मिक़दार से ज़्यादा थी , जिसकी ज़कात वो हर साल अपनी कमाई हुई income से निकाला करते थे ,
लेकिन एक समय ऐसा आया जब उनके पास cash money इतनी नहीं थी कि वो उसमे से ज़ेवर कि ज़कात अदा कर पाये मुल्लाओ से पूछने पर मालूम चला कि उसमे से कुछ हिस्सा आप बेच दे यह एक अविश्वासनीय जवाब था, ऐसा ही मेरे एक दोस्त के साथ भी हुआ तो उन्होने सोने कि मुकर्रर मिक़दार से 1 gram सोना बेच दिया अब उन्हे उसका ज़कात नहीं देना पड़ेगा ।
ये बाते जों हो रही थी ये बिलकुल इंसानी कानून के बनाए जाने पर उसका तोड़ निकाले जाने जैसा था । ये नतीजे खुदा की किताब के अलावा मुसलमानो ने जहा से भी रोशनी हासिल करने की कोशिश की ये उसी के नतीजे का असर है ।
ज़कात कब अदा किए जाए ?
कुरान कहता है , जब फसल कट जाए और जों मुआवज़ा हासिल हो उसका एक हिस्सा खुदा की राह मे खर्च किया जाए
“और वोही है जिसने बर्दाश्तह और ग़ैर बर्दाश्तह (या’नी बेलों के ज़रीए ऊपर चढ़ाए गए और बग़ैर ऊपर चढ़ाए गए) ब़ाग़ात पैदा फ़रमाए और खजूर (के दरख़्त) और ज़राअ़त जिसके फल गूनागूं हैं और ज़ैतून और अनार (जो शक्लमें) एक दूसरे से मिलते जुलते हैं और (ज़ाइक़े में) जुदागाना हैं (भी पैदा किए)। जब (यह दरख़्त) फल लाएं तो तुम उनके फल खाया (भी) करो और उस (खेती और फल) के कटने के दिन उसका (अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्ररकर्दा) ह़क़ (भी) अदा कर दिया करो और फ़ुज़ूल ख़र्ची न किया करो बेशक वो बेजा ख़र्च करने वालों को पसंद नहीं करता।“ 6 : 141
ये आयत इस बात की तसदीक़ करती है कि जब भी आपके पास माल आए चाहे वो नौकरी के जरिये चाहे बिज़नस के जरिये और चाहे खेती के जरिये । चुकि पहले के दौर मे साल मे एक खेती हुआ करती थी जों ज़राय का अहम source हुआ करता था तब लोग साल मे एक बार ज़कात अदा किया करते थे ,जों भी ज़रूरत मंद हुआ करते थे वो भी एक बार मे ही अपना हिस्सा ले साल भर के लिए उनकी ज़रूरत का सामान इकट्ठा कर लेते थे।
आज के दौर मे जब भी आप की salary हासिल हो या कोई बिजनेस करते हो उस आमदनी मे से 2.5 % खुदा की राह मे खर्च कर दे , जिन पर आप खर्च कर रहे है , उन्हे भी हर महीने अपनी जरूरतों के लिए तकलीफ़ों का सामना करना पड़ रहा है । जिस भी जरिये से आप मुनाफा हासिल करते है उसका 2.5% ज़रूर निकाले ।
और जों ये सोचते है कि इस्लाम मे ज़कात साल मे एक बार अदा करना चाहिये तो वो लोग जान ले जों भी माल आपने साल मे कमाया है न कि बचाया है उसका 2.5 % निकाला जाए , वैसे country Govt. भी यही तरीका इस्तेमाल करती है ।
वैसे जों tax आपको उस मुल्क मे रहने का देना है वह आप पर लाज़िम है क्योकि उस tax के जरिये से आप उस मुल्क मे दीगर फायदे हासिल कर रहे होते है , बिलकुल उसी तरह जब खुदा आप को ज़िंदगी की सुख सुविधा दे रहा हो तो क्या हमारा हक़ नहीं बनता की उसे पूरा करे ।
ज़कात किसे अदा किया जाए ?
कुरान ने बताया उस माल को अपने मा बाप, करीबी रिश्तेदार ,यतीम, मोहताज और मुसाफिर के लिए है
“आप से पूछते हैं कि (अल्लाह की राह में) क्या ख़र्च करें? फ़रमा दें : जिस क़दर भी माल ख़र्च करो (दुरुस्त है), मगर उसके ह़क़दार तुम्हारे मां बाप हैं और क़रीबी रिश्तेदार हैं और यतीम हैं और मोह़ताज
हैं और मुसाफ़िर हैं, और जो नेकी भी तुम करते हो बेशक अल्लाह उसे खू़ब जाननेवाला है।” 2 :215
मुसलमानों मे अजीब और बिगड़ी हुई धारणा बनी हुई है की ज़कात की रकम से मुसलमानों की मदद की जाए । यह इंसानियत पर सरासर ज़ुल्म है । जो मजहब पूरी इंसानियत के लिए आया था , उसके फाइदा का हक़ सिर्फ चंद लोगो तक पहुचे, अगरचे तुम्हारे माँ बाप , भाई या रिश्तेदार गैर मज़हब का हो जाए तो क्या रिश्ता ख़त्म हो जाता है ? क्या और फिर वो अपनी ज़रूरत के वास्ते आपके पास आए तो आप उसे मना कर देंगे ?
इस्लाम में ज़कात का मक़सद क्या है ?
खुदा तआला चाहता है कि इन्सान इंसानियत वास्ते अपने माल को ज़रूरतमन्द लोगो मे खर्च करे जिससे उनका माल और उनकी रूह दोनों पाक हो जाए । और इंसानियत के फलाह के काम को बखूबी अंजाम दिया जाए ।जिन लोगो ने खुदा के दीन को अपने निजी मफाद हासिल करने का ज़रिया बना रखा है वो जहन्नुम की आग खुद के लिए तैयार कर रहे है न सिर्फ आखिरत मे बल्कि इसी दुनिया मे भी ।